लोकतंत्र के 18वीं लोकसभा तक का सफरनामा

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Manikchand Seth

सन 1947 से लेकर सन 2019 तक भारत में लोकसभा के चुनाव सत्रह बार हो चुके हैं । सन 2024 में अठारहवी लोकसभा का चुनाव हो रहा है। हर लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी दल एवम विपक्षियों के बीच सत्ता की प्राप्ति का संघर्ष होता है। 

स्वतंत्रता प्राप्ति के सतहत्तर सालों बाद भी आरोप प्रत्यारोप की नीति ही सत्ता प्राप्ति का एकमात्र साधन है। हर चुनाव में एक भावनात्मक मुद्दा जनता की संवेदनाओं को उद्वेलित करता है और सत्ता का माध्यम बन जाता है।

सतहत्तर सालों के सफर का सिंहावलोकन करने पर पता चलता है कि कभी गरीबी हटाओ का नारा, लगातार तीन बार केंद्र में सत्ता दिलाता है। फिर वही गरीबी हटाने वाले दल की नेता शक्ति का केंद्र बन जाती है। भ्रष्टाचार , अफसरशाही, मंहगाई, बेरोजगारी बेलगाम हो जाती है। जनता की अकुलाहट असंतोष की आवाज बन जाती है और इस परिस्थिति में आग में घी का काम करता है राजनारायण द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट में दाखिल याचिका पर आया निर्णय जिसमें इंदिरा गांधी को चुनाव में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का दोषी पाकर अयोग्य घोषित किया जाता है। सत्ता के शीर्ष पर बैठी कांग्रेस सरकार की मुखिया इंदिरा गांधी का अधिनायकवादी स्वरूप दिखता है। देश में आपातकाल की घोषणा होती है।भ्रष्टाचार, बेरोजगारी के विरुद्ध जय प्रकाश नारायण की अगुवाई में जनता की आवाज के साथी बनने वाले नेताओं को कारगार और अंत में 25 जून 1975 से 21 मार्च 77 की इक्कीस महीने की त्रासदी समाप्त हुई। तानाशाही के खिलाफ जनता ने वोट दिया और  जनता पार्टी का उदय हुआ। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। मार्च 1977 से जुलाई 1979 तक रहे और किसान नेता चौधरी चरण सिंह जनवरी 1980 तक प्रधान मंत्री का दायित्व निभाया। एक बार फिर आपातकाल थोपने वाली इंदिरा गांधी 1980 में सत्ता में वापस आईं और 1984 तक सत्ता में बनी रहीं। इतनी जल्दी सत्ता वापसी के क्या कारण थे? जनता की याददाश्त कमजोर होती है अथवा जनता एक स्थिर परिपक्व सरकार चाहती है? विदेशी ताकतों द्वारा हस्तक्षेप की बात करने वाली इंदिरा गाँधी की बातों के पीछे कोई रहस्य था? संगठन की दुहाई देने वालों के संगठन की शक्ति क्षीण हो गयी अथवा संगठन केवल प्रचार का साधन है? 

कांग्रेसमुक्त पहली सरकार का कार्यकाल पूरे पाँच साल नहीं चला। फिर इंदिरा गांधी की हत्या ने उनके हवाई जहाज उड़ाने वाले बेटे के लिये कॉकपिट से राजनीतिक गलियारे की कैबिनेट से होते हुये देश की कमान दिलाई। सन 1984 के इस चुनाव में माँ की हत्या से टूअर हुए बेटे राजीव को सहानुभूति मिली। रेकर्ड मतों से कॉंग्रेस सत्तारूढ़ हुई और 404 सीटों का अधिकतम बहुमत प्राप्त हुआ तथा बीजेपी मात्र दो सीटों पर सिमट गई। इस चुनाव से पहले इंदिरा की हत्या के रोष में  सामाजिक अन्याय हुआ। सिख समुदाय के लोगों को पाशविक यातनाओं का सामना पड़ा। यह स्वतंत्र भारत के लोकतांत्रिक समाज का घिनौना पक्ष रहा। जहाज उड़ाने वाला देश चलाने में चूक गया । इस सरकार की उपलब्धि रही कम्प्यूटर क्रांति।

सन 1989 में मंडल कमंडल की राजनीति का फल गैर कांग्रेसी सरकार को सत्ता मिली और राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने। ग्यारह माह बाद युवा तुर्क चन्द्र शेखर सिंह ने प्रधानमंत्री पद का दायित्व सम्भाला अठारह महीने बाद पुनः जून 1991 में कांग्रेस की सरकार आयी इस चुनाव में राजीव गांधी की हत्या लिट्टे समर्थकों द्वारा की गई।  कांग्रेस को 232 सीटें मिलीं,  नरसिम्हा राव बने प्रधानमंत्री तथा 120 सीटें जीत कर बीजेपी मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में रही और 1996 के आम चुनावों में कांग्रेस फिर एक बार सत्ता से बाहर हुई।बीजेपी को161 सीटों पर विजय मिली। कई दलों के गठबंधन में बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री के चुना गया, बहुमत सिद्ध नहीं कर पाने के कारण इस्तीफा दिया। भारतीय राजनीति में नैतिकता और शुचिता का यह अकेला उदाहरण है जिसमें प्रधानमंत्री बने रहने के लिये किसी भी प्रकार के जोड़ तोड़ को प्रश्रय देकर सरकार बचाने की बजाय सत्ता छोड़ना उचित माना। 

जनता दल के इंद्र कुमार गुजराल प्रधान मंत्री बने और सन 1998 में मध्यावधि चुनाव हुए बीजेपी के नेतृत्व में एन डी ए की सरकार बनी । बीजेपी को 182 सीटें मिलीं  और एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। इंडिया शाइनिंग का नारा, प्रमोद महाजन की भूमिका स्वर्णिम त्रिकोण सड़क योजना और नदियों को जोड़ने की योजना बाजपेयी सरकार की कालजयी उपलब्धि रही। परन्तु सन 2004 के चुनाव में बीजेपी और उसका गठबंधन चुनाव में जीत नहीं पाया। काम करने के बावजूद एनडीए सरकार को चुनावी पराजय मिली क्योंकि बीजेपी और उसकी बौद्धिक निर्देशक संस्था जनता की नब्ज पहचानने में भूल कर गयी। 

सन 2004 में मात्र 145 सीटें जीत कर अन्य दलों के समर्थन से कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी ।सदन में 148 सीटों वाली भाजपा ने विपक्ष की भूमिका निभायी। इस चुनाव में आर्थिक विकास का नया नारा आया। 2009 के चुनाव में आर्थिक विकास के नारे और मंहगाई कम करने को मुद्दा बना कर कांग्रेस ने 206 सीटें जीत कर अन्य दलों के सहारे एनडीए गठबंधन का नेतृत्व किया और बीजेपी घटकर 116 सीटों पर सिमट गई।

इस बीच सोशलिस्ट , कम्युनिष्ट दलों का भारतीय राजनीति में अस्तित्व घटने लगा और जय प्रकाश नारायण की सामाजिक, आर्थिक,राजनीतिक परिवर्तन की राह दिखाने वाली सम्पूर्ण क्रांति से उदित युवा नेताओं ने जाति आधारित क्षेत्रीय दलों का गठन राजनीतिक आर्थिक विकास और सामाजिक सुरक्षा का मुल्लमम्मा चढ़ाकर किया। राष्ट्रीय जनता दल, समता पार्टी, समाजवादी पार्टी,भारतीय क्रांति दल,तृणमूल कांग्रेस, झामुमो,  तेलगुदेशम, बीजेडी को पहले से ही चल रहे द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम की सफलता ने नये क्षेत्रीय दलों को राह दिखाई।

सन 1977 से 2014 तक क्षेत्रीय दलों ने केंद्र में सरकार बनाने वाली बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों के साथ सत्ता में भागीदारी की।

सन 1984 के बाद पहली बार 2014 में बीजेपी ने अपने अकेले दम पर बहुमत पाया और एनडीए में शामिल दलों के साथ गठबंधन को निभाया। 30 सालों बाद भारतीय राजनीति को एक स्थिर सरकार देने वाली पार्टी मिली।

इस चुनाव का मुद्दा 2004 से 2014 तक रही कांग्रेस नीत यूपीए की सरकार में हुये घोटालों की लंबी फेहरिस्त कोयला घोटाला, कॉमन वेल्थ खेल घोटाला, सरकारी भ्रष्टाचार, बेलगाम अफसरशाही, माफिया की बढ़त और  कोढ़ में खाज का काम किया मंहगाई पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के एक बयान ने ” मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं जो मंहगाई कम कर दूं”। एक विश्वविख्यात अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री का ऐसा लाचारगी भरा बयान और अच्छे दिन आयेंगे को प्रखर वक्ता नरेंद्र मोदी ने भाजपा के पक्ष से एक बड़ा मुद्दा बनाया। कांग्रेस सरकार की अकर्मण्यता से अकुलाई त्रस्त जनता ने बीजेपी को निर्णायक जीत दिलाई। कांग्रेस पार्टी अपने राजनीतिक जीवन यात्रा में न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई, इसे केवल 44 सीटें मिलीं।

सन 2019 के चुनाव में विकास,सबका विश्वास ,सबका साथ नारे पर जनता ने समर्थन दिया और बीजेपी ने 303 सीटों का आंकड़ा प्राप्त किया। 

बीजेपी के पिछले दस सालों के कार्यकाल की समीक्षा करें तो राजनीतिक दृष्टिकोण से स्थिर सरकार के कारण देश में आर्थिक विकास हुआ। विदेश नीति अब तक कि भारत की सबसे सफल विदेश नीति का काल रहा। भारत की साख और पहचान की विश्वसनीयता में वृद्धि हुई। सामाजिक कुरीतियों में सुधार के सफल निर्णय हुये।

श्रीराम मंदिर निर्माण एवम प्राण प्रतिष्ठा आयोजन से बहुसंख्यकों की धार्मिक सुरक्षा देने वाली नीति से समाज में समरसता बढ़ी क्योंकि इस आयोजन में अन्य अल्पसंख्यकों को भी सहभागिता हेतु आमंत्रित किया गया। राष्ट्रीय सुरक्षा पहले से बहुत अधिक सुदृढ़ हुई और राष्ट्रवाद की भावना में वृद्धि हुई। कोविड काल में प्रबंधन उत्तम रहा।

आर्थिक मुद्दे पर सरकार का प्रदर्शन रोजगार के अवसर बनाने और उसके क्रियान्वयन में अपेक्षित स्तर से कम रहा। सरकारी संस्थाओं के निजीकरण और निजी क्षेत्रों को दूसरे दरवाजे से सरकारी संस्थाओं में प्रवेश कराकर सरकार ने नौकरियों के अवसर पैदा किये। परन्तु इससे गुणवत्ता में कमी आयी और भ्रष्टाचार बढ़ा। भ्रष्टाचार मिटाने के संकल्प से चलने वाली सरकार ने रोजगार की अपरिपक्व नीतियों के कारण जाने अनजाने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। सरकार की शिकायत निपटान पद्धति कम्प्यूटर का नकाब लगा कर जनता की मुसीबतों की अनदेखी का अचूक साधन है। 

चुनावी बांड की के पीछे की मंशा सभी राजनीतिकदलों की नैतिकता की पोल खोलती है और देश की राजनीति में लोकतंत्र को कमजोर करने ,भ्रष्टाचार को कानूनी जामा पहनाने का काम है। ऐसे दलों द्वारा लोकतंत्र की रक्षा जैसे शब्द जनता को कहे गये अपशब्द हैं।

सन  2024 का लोकसभा आम चुनाव क्षेत्रीय दलों की भूमिका को महत्वपूर्ण बना रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को चुनौती देती कांग्रेस पार्टी का हाल बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना। यूपीए से इंडी गठबंधन तक कि यात्रा करने वाली कांग्रेस की अनसुनी कर क्षेत्रीय दल अपने अपने हितों की रक्षा को प्राथमिकता देते हैं । ऐसे मे भाजपा को कोई बड़ी चुनौती नहीं दिखती है। जनता की नब्ज की धड़कन पहचानने में सभी दल किसी न किसी बिंदु पर अतिआत्मविश्वास से भरे हैं। अप्रत्याशित परिणाम छोटी संख्या में ही सही अपेक्षित हैं जनता की नब्ज के लक्षणों के आधार पर।

यह सब एक व्यक्ति की इच्छा शक्ति का परिणाम रहा अथवा भाजपा में सभी के सम्मिलित सहयोग और समर्थक दलों की नेकी इसका विश्लेषण करने पर लगता है कि लोकतंत्र अभी भी बाल्यावस्था में है। आजादी के 77 सालों बाद भी लोकतंत्र युवा नहीं हो पाया है। राजनीतिक रूप से देखा जाय तो  विपक्षी दल समाधान विहीन विरोध करते हैं। यही कारण है कि पार्लियामेंट में केवल आरोप प्रत्यारोप का झगड़ा देखने को मिलता है। कोई दिशा दिखाने वाला भाषण नहीं।

सन 1957 में निर्दलीय सांसदों की संख्या 42 थी, इसमें कमी होती चली गयी। यह एक सोंचनीय विषय है, क्या समाज में राजनीतिक गुणात्मक विश्लेषण की चाह घट गयी?

सामाजिक दृष्टिकोण से अब भी तुष्टिकरण की राजनीति हो ही रही है। संविधान की दुहाई और लोकतंत्र की रक्षा के ठेकेदार संविधान की धज्जियां उड़ाते जाति आधारित टिकट देते, जाति आधारित गोलबंदी को प्रश्रय देते। 

लोकतंत्र की चिन्ता में दुबले होते नेताओं और उनके राजनीतिक दल जनता पर प्रत्याशी थोपते हैं, ऐसी स्थिति में जनता के पास कोई विकल्प नहीं है। सभी राजनीतिक दल अपराधियों को टिकट देते हैं, यदि सभी राजनीतिक दल उच्चत्तम न्यायालय में शपथ पत्र दायर कर दें कि राजनीति में अपराधियों को टिकट नहीं देंगे एक बड़ी समस्या का हल हो सकता है। क्या लोकतंत्र की दुहाई देने वाले दलों में यह साहस है? जनता पूछना चाहती है, पूछे किससे? 

वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति में परिवार वाद, दलबदलुओं को प्रश्रय, चुनाव में धनबल का प्रयोग आम बात हो गयी है। सत्ता प्राप्ति के बाद हर दल संविधान में दी गयी अस्थायी व्यवस्था को जारी रखता है ,सशक्तिकरण नहीं करता उस वर्ग से आने वालों का। नेता को दो साल से कम सजा हुई तो चुनाव लड़ सकता है, साधारण व्यक्ति जो अपने वोट से उसे नेता बनाता है वह सरकारी नौकरी के लिये अयोग्य है। संविधान के नाम पर अनेकों कानूनी विसंगतियों का संग्रहण लोकतंत्र को बौना बनाता है। क्यों नहीं सभी राजनीतिक दल इन विसंगतियों को समाप्त करना चाहते हैं। यह किसी दल की अंदरूनी नीति हो सकती है कि जिस दल से मुक्त करने की बात करता हो उसी दल से युक्त होने को सही ठहराये। पर जनता उसके इस फैसले को सही मान लेगी इसकी कोई गारंटी नहीं है।

लोकतंत्र में सफलता सिर चढ़ कर बोलती है और व्यक्ति दल से ऊपर शक्ति केंद्र बन जाता है। जिस देश में 140 करोड़ की जनसंख्या में 80 करोड़ लोगों को रियायती राशन देना पड़ता है उसकी कीमत 60 करोड़ जनता वहन करती है या कोई राजनीतिक दल? हम उन 80 करोड़ को स्वावलम्बी बनाने के लिये क्या कर रहे हैं?जबसे देश आजाद  हुआ मध्यम वर्ग ने राजनीतिक आर्थिक सामाजिक नैतिकता का बोझ उठाया है और उसी की स्थिति 77 सालों बाद भी सोंचनीय है। अर्थशास्त्र से विकास के गणित की परिभाषा और समाज के निम्न से मध्यम वर्ग के विकास का गणित एक दम भिन्न है। सांख्यकीय गणना हाथी के दाँत है इसमें और वास्तविक गणित में अंतर है।

वैश्विक व्यवस्था और हमारे देश के हितों को ध्यान में रखते हुये भाजपा ने राष्ट्र की सुदृढ़ता के लिये काम किया जिस पर हर भारतवासी को गर्व होगा। आसन्न चुनाव में राजनीतिक दलों द्वारा दिये गये घोषणा पत्र में दायित्ववान होने का कोई आश्वासन नहीं होना, लोकतंत्र को सुदृढ़ करने के लिये जनप्रतिनिधियों को उत्तरदायी नहीं बनाना और उनके असीमित विशेषाधिकार में कटौती पर कुछ नहीं बोलना खलता है। 

ऐसे में लोकतंत्र सशक्तिकरण की दुहाई जनता के साथ खूबसूरत मजाक कहलायेगा जब तक वास्तव में जनप्रतिनिधि खास नहीं आम आदमी के बराबर नहीं हो जायेगा।  ऐसा होने पर गारंटी है भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा।

फिर वही नारे नए स्वरूप में जनता को लुभाने को लाये जायेंगे जिनका केंद्र गरीबी, रोजगार, विकास और श्रीराम तो जगत आधार हैं ही तब से हैं जब ये राजनीतिक दल अस्तित्व में भी नहीं थे। गारंटी आसन्न चुनाव में एक नया प्रचलित शब्द है।  सभी गारंटी देने वालों की खुद की नैतिकता की गारंटी कौन देगा? लोकतंत्र को बलवान बनाने की योजनाओं की प्रतीक्षा में………अच्छे दिनों की अभिलाषा में आशावान जनता  वोट देने के लिये, मतदान करने के लिये उत्साहित है।

हर कोई करे मत का दान ,इसी विश्वास से फिर अगले चुनाव में चकल्लस होगी।

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